Tuesday 23 December 2014

एक बेनाम बस्ती

शहर के सबसे पॉश इलाके में बने आलिशान मॉल के पास खाली पड़ी सरकारी ज़मीन पर अवैध तरह से बनी थी वो बेनाम बस्ती। कारीगर रहते थे वहां .... शायद कारीगर कहना ही ठीक होगा उन्हें । साल भर अपने हाथों से कुछ ना कुछ बनाते और पास फुटपाथ पर ही बेचते। कभी तरह तरह के खिलोने तो कभी बेंत की कुर्सियां और मेज़, नवरात्रों में माँ दुर्गा की मूर्तियाँ तो गणेश उत्सव पर गणेश की मूर्तियां । जो भी बनाते उसमें जान फूंक देते । फिर भी ना उन्हें इस शहर में वो सम्मान मिला ना सर पर छत। जहाँ जाते किराये पर घर खरीदने वहीँ से बेइज़्ज़त करके निकाल दिए जाते क्योंकि शहर शहर भटकते थे वो लोग उनका कोई एक ठिकाना नहीं था लिहाज़ा इस तरह सरकारी ज़मीन पर लकड़ियों और बरसाती के सहारे कई झोंपड़ियाँ बन गई और 20-25 झोंपड़ियों ने मिलकर छोटी बस्ती की शक्ल ले ली । बेनाम और अस्तित्वहीन बस्ती जिसे आते-जाते सब हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं , जैसे वो सब बस कचरे का ढेर हों और कुछ नहीं। उनके बनाये खिलौनों से शहर केे बच्चों का बचपन आबाद हैे , उनकी बनाई मूर्तियों के बिना शहर का कोई भी पंडाल अधूरा रहता । फिर भी वो हैं बस कचरे का ढ़ेर, बेनाम बस्ती में रहने वाले बेनाम लोग । वो बेनाम बस्ती जिसे हमनें ही जन्म दिया है । और अब वो बेनाम लोग हमें आते जाते हिकारत भरी नज़रों से देखते है। शहर के सबसे पॉश इलाके में अपनी बस्ती से ऊँची ऊँची इमारतों को ठेंगा दिखाते है ।