Thursday 22 December 2016

टीकाकरण (लघुकथा)

'नमस्ते डाकटरनी साहिबा हम बिमला अभी पिछले महीना आप हमारे बच्चा कराये थे न।'
'अच्छा हम्म'
'ये हमारा लड़का किसन आप बोले थे एक महीने बाद लेकर आये इसको टीके के लिए '
'हाँ हाँ, ठीक हो अब ? '
'हाँ जी '
'दूध आता है ठीक से '
'हाँ जी आता है '
'बच्चे को यहाँ लेटाओ वजन करना है इसका '
'सिस्टर इनकी फाइल लेकर आना '
'देखो विमला सरकार की तरफ से कुछ टीके मुफ़्त में उपलब्ध होते है पर ये कुछ दूसरे टीके भी है जो लगवाने चाहिए बच्चे को, तो मेरी मानो तो इसको भी कार्ड में जुड़वा लो सहकारी दुकान से लोगी तो ज्यादा महंगे नहीं पड़ेंगे हज़ार दो हज़ार का ही खर्चा आएगा '
'हाँ हाँ डाक्टरनी साहिबा आपको मुन्ना के लिए जो लगे आप कारड में जुड़वा लो मैं लगवाऊंगी सारे टीके इसको, बच्चों के लिए तो मेहनत मजदूरी करते है जितना भी खर्चा हो आप मुन्ना के लिए अच्छे से अच्छा लिख दो। एक ही तो है हमारा लाल  '
'मैं नहीं लिखूंगी अंदर के कमरे में बच्चों के डॉ बैठे है वो लिखेंगे अभी सिस्टर ले जाएगी तुमको डॉ साहब के पास '
(टेबल पर रखी विमला की फाइल पढ़कर चौंकते हुए ) 'अरे विमला तुम्हारे तो जुड़वा बच्चे हुए थे ना, एक बेटी भी हुई थी तुमको तो उसको क्यों नहीं लाई, दोनों बच्चों के साथ में कार्ड बनवाना था '
'डाक्टरनी जी अभी तो मुन्ना का बनवा दो अगली बार उसका देखेंगे'
'दोनों साथ में हुए थे तो टीके भी एक ही समय पर लगेंगे कल मुन्नी को भी लेकर आना दोनों बच्चों का साथ में कार्ड बनवा लेंगे'
'अरे आपको कहा न मुन्ना का बनवा लो हमको नहीं बनवाना उस पनौती का कारड वारड एक तो पैदा हो गई है अब क्या जीवन भर उसपर पैसा लगाते रहेंगे, अपनी किस्मत में जो लिखवा कर आई होगी वो भुगतेगी आप मुन्ना का कारड बनवा लो नहीं हो दूसरे हस्पताल जाकर बनवा लेंगे  '
(डॉ संध्या का जवाब उनके तमतमाते चेहरे पर साफ लिखा था, गुस्से और अविश्वास की दृष्टी से वो विमला को देखती रही जब तक की को फाइल उठाकर कमरे के बाहर न निकल गई)

Wednesday 27 April 2016

आखरी सांस

रिश्ते यूँ ही नहीं बिखर जाते है एक दिन में, एक पल में..
कांच के बर्तन की तरह टूट कर अचानक चकनाचूर नही होते ...
गलतफमियों, ख़ामोशी के दीमक आहिस्ता आहिस्ता
बसने लगते है रिश्तों की दरारों में,
और दरारें कभी ना भर सकने वाली खाई में बदल जाती है,
फिर अहं के गिद्द नोंचने लगते है बरसों से बुने ख्वाबों को,
कतरा कतरा दम तोड़ते हैं रिश्ते प्यार, समझ, भरोसे की कमी में,
फिर भी उम्मीद की डोर से बंधे बरसों तक किसी बीमार की तरह
बिस्तर पर पड़े रहते है एक शीशी इंतज़ार के सहारे,
पर जिस दिन ये उम्मीद अपनी आखरी सांस लेती है न
उसके साथ ही दम तोड़ देता है रिश्ता भी फिर कभी न जुड़ पाने के लिए...
मेरे अंदर भी आज ऐसी ही एक उम्मीद ने अपनी आखरी सांस ली है....

Saturday 2 April 2016

यूँ ही कुछ भी.....


शब्द इधर उधर बिखर रहे है, ख्याल कोई मुक्कमल शक्ल सूरत नहीं पा रहे। जो बातें कही जा सकती है वो सामने आने में डरती है, वो कोना पकड़ कर छुपने में अब माहिर हो चुकी है और मैं जिद्दी अब भी कुछ लिख डालने कुछ कह डालने की जिद्द पर अड़ी हूँ, ऐसे रास्ते खोजने में जुटी हूँ जिससे जो अंदर है वो बाहर आ सके।  क्यूंकि जैसे भी हो उल्टा फुल्टा, आधा- अधूरा, टुटा फूटा।  जैसे भी हो बस अंदर का गुबार बाहर निकलना बेहद जरुरी है, जो बातें कही जानी चाहिए उन्हें कांपते होंटो से या रूकती सांसो से जैसे भी हो कह देना जरुरी है, वरना ना कहने की आदत हो जाती है चाहे सही हो या गलत कुछ न करने की फितरत बन जाती है इसीलिए कहना जरुरी है, लिखना जरुरी है, व्यक्त करना जरुरी है और खुद में खुद को कहीं न कहीं बचाए रखना उससे भी ज्यादा जरुरी है। 

Monday 28 March 2016

कि दुःख की पराकाष्टा भी विकारों को जला देती है.....

जिंदगी भी एक गुरुर है।  हमारी जिंदगी, हमारे अपनों की जिंदगियां सब कुछ हमारे अंदर एक गुरुर को जन्म देती है और जिंदगी के इस गुरुर में चूर होकर हम ये अक्सर भूल जाते है कि ये जिंदगी हमारे पास बस एक अमानत है इसपर हमारा कोई अधिकार नहीं ये हमारे इशारों पर चलती और रूकती नहीं इसके अपने ही कायदे है, फैसले हैं, जो हम सब मानने को बेबस है। पर जब तक ये है तब तक सब कुछ हमारी मुठ्ठी में है, ख़ुशी है, इच्छाएं है , आकांक्षाएं है , अपेक्षाएं है और जो हमारे अनुरूप नहीं है उसकी खीज है, मलाल है, असंतुष्टता है, जो हासिल है उसका अहंकार है। पर जब ये जिंदगी ही हाथ से फिसलने लगे तब? तब किस चीज के पीछे भागेंगे हम, किस बात की शिकायत पूरी कायनात से करेंगे ? सारी उम्र जो अहंकार, जो स्वार्थ का लिबास ओढ़े थे उसका क्या हासिल?

जब अपनी आँखों के आगे किसी अपने की जिंदगी रेत की तरह तेज़ी से फिसलने लगती है, तो दुनिया की हर चीज़ बेमानी, बेमतलब हो जाती है, हर वो चीज़ जिस के बल पर खुद को खुदा समझने की भूल करते रहे थे वो सब अचानक मिटटी का ढेर लगने लगती है।  किसी को खोने का डर अक्सर जिंदगी की हकीकत समझा जाता है।  आई सी यू में जब जिंदगी और मौत का खेल चल रहा हो तो बाहर बैठे इस बात की फ़िक्र नहीं होती की शेयर मार्किट चढ़ा या गिरा, घर गिरवी है या जमीन जायदाद बिक गई? मिलने मिलाने वालो ने हमेशा की तरह अदब से सलाम किया या चार फिकरे कसे? दुःख की आग में धीरे धीरे पैसा, रुतबा, गुरुर, अहंकार सारे चोगे धू धू कर जलने लगते है और अंदर का वो इंसान बाहर निकलता है जो वक़्त के हाथों की बस एक कठपुतली है। पहले खूब गुस्सा आता है, सब से नाराजगी होने लगती है जी चाहता है दुनिया राख कर दें पर दुनिया को राख करने से भी उस एक इंसान की जिंदगी तो नहीं बक्शी जा सकती है। फिर वो गुस्सा भी धीरे धीरे पिघलने लगता है। कायनात से की गई शिकायतें फरियाद में बदल जाती है।  उम्मीद फिर भी नहीं टूटती क्यूंकि जिंदगी टूटने और हारने की इजाजत नहीं देती।  जिंदगी ताकत देती है कोशिश करते रहने की, हौसले से हर दुःख का सामना करने की।  जब तक साँसे है तब तक जिंदगी है, जब तक जिंदगी है तब तक उम्मीद है और जब तक उम्मीद है तब तक रास्ते खुदबखुद मिलते जाते है, मंजिले मिले न मिले चलना और चलते रहना एकमात्र विकल्प है। 

पर क्या ये जरुरी है किसी को खोने के दुःख में ही जिंदगी की कीमत को समझा जाये? क्या मौत का दुःख ही विकारों से हमें आजादी दिला सकता है ? क्या जिंदगी में इतना माद्दा नहीं के उसके होते हुए उसकी कीमत को पहचान लिया जाये? जब तक सांसे चलती है तब तक जरा सी जिंदगी भी जिन्दा भी रहें तो मुस्कुराहटें भी आबाद रहेगी।