Monday 28 March 2016

कि दुःख की पराकाष्टा भी विकारों को जला देती है.....

जिंदगी भी एक गुरुर है।  हमारी जिंदगी, हमारे अपनों की जिंदगियां सब कुछ हमारे अंदर एक गुरुर को जन्म देती है और जिंदगी के इस गुरुर में चूर होकर हम ये अक्सर भूल जाते है कि ये जिंदगी हमारे पास बस एक अमानत है इसपर हमारा कोई अधिकार नहीं ये हमारे इशारों पर चलती और रूकती नहीं इसके अपने ही कायदे है, फैसले हैं, जो हम सब मानने को बेबस है। पर जब तक ये है तब तक सब कुछ हमारी मुठ्ठी में है, ख़ुशी है, इच्छाएं है , आकांक्षाएं है , अपेक्षाएं है और जो हमारे अनुरूप नहीं है उसकी खीज है, मलाल है, असंतुष्टता है, जो हासिल है उसका अहंकार है। पर जब ये जिंदगी ही हाथ से फिसलने लगे तब? तब किस चीज के पीछे भागेंगे हम, किस बात की शिकायत पूरी कायनात से करेंगे ? सारी उम्र जो अहंकार, जो स्वार्थ का लिबास ओढ़े थे उसका क्या हासिल?

जब अपनी आँखों के आगे किसी अपने की जिंदगी रेत की तरह तेज़ी से फिसलने लगती है, तो दुनिया की हर चीज़ बेमानी, बेमतलब हो जाती है, हर वो चीज़ जिस के बल पर खुद को खुदा समझने की भूल करते रहे थे वो सब अचानक मिटटी का ढेर लगने लगती है।  किसी को खोने का डर अक्सर जिंदगी की हकीकत समझा जाता है।  आई सी यू में जब जिंदगी और मौत का खेल चल रहा हो तो बाहर बैठे इस बात की फ़िक्र नहीं होती की शेयर मार्किट चढ़ा या गिरा, घर गिरवी है या जमीन जायदाद बिक गई? मिलने मिलाने वालो ने हमेशा की तरह अदब से सलाम किया या चार फिकरे कसे? दुःख की आग में धीरे धीरे पैसा, रुतबा, गुरुर, अहंकार सारे चोगे धू धू कर जलने लगते है और अंदर का वो इंसान बाहर निकलता है जो वक़्त के हाथों की बस एक कठपुतली है। पहले खूब गुस्सा आता है, सब से नाराजगी होने लगती है जी चाहता है दुनिया राख कर दें पर दुनिया को राख करने से भी उस एक इंसान की जिंदगी तो नहीं बक्शी जा सकती है। फिर वो गुस्सा भी धीरे धीरे पिघलने लगता है। कायनात से की गई शिकायतें फरियाद में बदल जाती है।  उम्मीद फिर भी नहीं टूटती क्यूंकि जिंदगी टूटने और हारने की इजाजत नहीं देती।  जिंदगी ताकत देती है कोशिश करते रहने की, हौसले से हर दुःख का सामना करने की।  जब तक साँसे है तब तक जिंदगी है, जब तक जिंदगी है तब तक उम्मीद है और जब तक उम्मीद है तब तक रास्ते खुदबखुद मिलते जाते है, मंजिले मिले न मिले चलना और चलते रहना एकमात्र विकल्प है। 

पर क्या ये जरुरी है किसी को खोने के दुःख में ही जिंदगी की कीमत को समझा जाये? क्या मौत का दुःख ही विकारों से हमें आजादी दिला सकता है ? क्या जिंदगी में इतना माद्दा नहीं के उसके होते हुए उसकी कीमत को पहचान लिया जाये? जब तक सांसे चलती है तब तक जरा सी जिंदगी भी जिन्दा भी रहें तो मुस्कुराहटें भी आबाद रहेगी।