रिश्ते यूँ ही नहीं बिखर जाते है एक दिन में, एक पल में..
कांच के बर्तन की तरह टूट कर अचानक चकनाचूर नही होते ...
गलतफमियों, ख़ामोशी के दीमक आहिस्ता आहिस्ता
बसने लगते है रिश्तों की दरारों में,
और दरारें कभी ना भर सकने वाली खाई में बदल जाती है,
फिर अहं के गिद्द नोंचने लगते है बरसों से बुने ख्वाबों को,
कतरा कतरा दम तोड़ते हैं रिश्ते प्यार, समझ, भरोसे की कमी में,
फिर भी उम्मीद की डोर से बंधे बरसों तक किसी बीमार की तरह
बिस्तर पर पड़े रहते है एक शीशी इंतज़ार के सहारे,
पर जिस दिन ये उम्मीद अपनी आखरी सांस लेती है न
उसके साथ ही दम तोड़ देता है रिश्ता भी फिर कभी न जुड़ पाने के लिए...
मेरे अंदर भी आज ऐसी ही एक उम्मीद ने अपनी आखरी सांस ली है....
Wednesday, 27 April 2016
आखरी सांस
Saturday, 2 April 2016
यूँ ही कुछ भी.....
शब्द इधर उधर बिखर रहे है, ख्याल कोई मुक्कमल शक्ल सूरत नहीं पा रहे। जो बातें कही जा सकती है वो सामने आने में डरती है, वो कोना पकड़ कर छुपने में अब माहिर हो चुकी है और मैं जिद्दी अब भी कुछ लिख डालने कुछ कह डालने की जिद्द पर अड़ी हूँ, ऐसे रास्ते खोजने में जुटी हूँ जिससे जो अंदर है वो बाहर आ सके। क्यूंकि जैसे भी हो उल्टा फुल्टा, आधा- अधूरा, टुटा फूटा। जैसे भी हो बस अंदर का गुबार बाहर निकलना बेहद जरुरी है, जो बातें कही जानी चाहिए उन्हें कांपते होंटो से या रूकती सांसो से जैसे भी हो कह देना जरुरी है, वरना ना कहने की आदत हो जाती है चाहे सही हो या गलत कुछ न करने की फितरत बन जाती है इसीलिए कहना जरुरी है, लिखना जरुरी है, व्यक्त करना जरुरी है और खुद में खुद को कहीं न कहीं बचाए रखना उससे भी ज्यादा जरुरी है।
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