रिश्ते यूँ ही नहीं बिखर जाते है एक दिन में, एक पल में..
कांच के बर्तन की तरह टूट कर अचानक चकनाचूर नही होते ...
गलतफमियों, ख़ामोशी के दीमक आहिस्ता आहिस्ता
बसने लगते है रिश्तों की दरारों में,
और दरारें कभी ना भर सकने वाली खाई में बदल जाती है,
फिर अहं के गिद्द नोंचने लगते है बरसों से बुने ख्वाबों को,
कतरा कतरा दम तोड़ते हैं रिश्ते प्यार, समझ, भरोसे की कमी में,
फिर भी उम्मीद की डोर से बंधे बरसों तक किसी बीमार की तरह
बिस्तर पर पड़े रहते है एक शीशी इंतज़ार के सहारे,
पर जिस दिन ये उम्मीद अपनी आखरी सांस लेती है न
उसके साथ ही दम तोड़ देता है रिश्ता भी फिर कभी न जुड़ पाने के लिए...
मेरे अंदर भी आज ऐसी ही एक उम्मीद ने अपनी आखरी सांस ली है....
Wednesday, 27 April 2016
आखरी सांस
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