Monday, 30 September 2013
फुर्सत के कुछ पल
आज कुछ पल खुद के साथ जो बिताये तो लगा,जैसे अब तक खुदसे अनजान थी मैं,बढ तो रहे थे कदम पर नहीं जानती थीकिसकी पहचान थी मैं,
Sunday, 29 September 2013
इंतज़ार के पल पार्ट -2
शाम गहरा गई थी, खिड़की से बारिश की हलकी हलकी बुँदे छवि के चेहरे और हाथों पर इधर उधर बिखर रही थी, छवि किसी सोच में डूबी हुई थी उसे ये अहसास ही नहीं हुआ कि यूँ खिड़की पर खड़े उसे अपनी और रजत की यादों में खोये हुए पूरा एक घंटा हो गया था, यूँ भी ध्यान कहीं और हो तो वक़्त का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है ।
कुछ सोच कर छवि के आखों से आंसू की इक बूंद छलक गई पर बारिश की बूंदों ने उस बूंद को खुदमे समेट लिया और उसके साथ बह गई, जैसे उस बारिश को भी छवि का यूँ कमजोर पड़ना गवारा नहीं था। सच में बहुत कमजोर पड़ गई थी छवि इन तीन दिनों में ही रजत से उस दिन रिश्ता तोड़ कर तो आ गई थी पर तब से लेकर इन तीन दिनों में एक पल ऐसा नहीं था जब रजत की याद ने उसे रोने पर मजबूर न किया हो। कितनी ही बार उसने खुदको ही कोसा था के "इस बार भी तू ही बात संभाल लेती तो क्या बिगड़ जाता? जिस इंसान के बगैर एक पल भी बोझ लग रहा है उसे हमेशा के लिए खो दिया तूने । प्यार में हर चीज़ बराबरी की ही हो जरुरी तो नहीं ना अगर रजत का गुस्सा तेज है, उसे बिगड़ी बातों को बनाना नहीं आता तो बस इसलिए तू उसे छोड़ कर आ गई? उसका प्यार, परवाह, साथ ये सब इन छोटी छोटी बातों के आगे हार गया?" छवि को खुदपर ही बहुत गुस्सा आ रहा था ।
आज उसे रजत के साथ बिताये सारे अच्छे पल याद आ रहे थे, उसे याद आया के एक बार जब कॉलेज में बेटमिंटन के मैच के दौरान गिरने से उसके पैर में मोच आ गई थी और उससे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था तब रजत उसे किसी की परवाह किये बिना सबके सामने से गोद में उठाकर कॉलेज क्लिनिक तक ले गया था, कितना शर्मा गई थी छवि उस वक़्त|
छवि निढाल सी बिस्तर पर लेट गई पर नींद का एक रेशा भी उसकी आँखों में नहीं था, कुछ देर करवटे बदलते बदलते अचानक से मोबाइल स्क्रीन पर आई रौशनी और टीं-टीं ने उसका ध्यान अपनी और खींचा। अरे! ये क्या दस अन-रीड मैसैजिस? और सारे मैसैजिस रजत के थे।
मैसेज पढ़ते पढ़ते छवि की आँखों में एक बार फिर नमी तैर आई, रजत ने लिखा था "मेरी छवि, मैं जनता हूँ एक बार फिर मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है इन तीन दिनों में बहुत रुलाया ना मैंने? तुम इंतज़ार कर रही होंगी के मैं तुमसे बात करू और कहूँ कि छवि जो तुमने अचानक फैसला ले लिया हम दोनों के अलग हो जाने का वो मुझे मंजूर नहीं, तुम्हे किसने हक दिया कि तुम हम दोनों की जिन्दगी का फैसला अकेले ही कर लो ।
पर मैंने तीन दिन लगा लिए और मैं ये कहना चाहता हूँ कि तुम्हे हक है हम दोनों के लिए कोई भी फैसला अकेले लेने का पर तुम्हारा ये फैसला मैं मान ही नहीं सकता क्यूंकि तुम भी नहीं चाहती कि हम अलग हो जाएँ। मैं चाहता तो उस वक़्त ही तुम्हे जाने से रोक लेता क्यूंकि उस दिन जब मैं तुम्हारा इन्तेजार कर रहा था ना तब उन कुछ खामोश लम्हों ने मुझे मेरा आइना दिखा दिया, मुझे अहसास हुआ कि मैंने इतने वक़्त कितना गलत किया हमारे रिश्ते के साथ तुम इसे जोड़ने के लिए जतन करती रही और मैं अपने ही प्यार का दुश्मन बन बैठा और तुम्हारा दिल दुखाता गया। फिर भी मैं तुमसे माफ़ी नहीं मांगूंगा क्यूंकि माफ़ी काफी नहीं है मेरी गलतियों के लिए, पर एक वादा करता हूँ छवि फिर कभी जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर तुम्हे अकेला नहीं छोडूंगा चाहे वो हम दोनों के बीच की कोई प्रॉब्लम हो या जिन्दगी की कोई भी और परेशानी हो तुम हमेशा मुझे अपने साथ पाओगी। मैं कल तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।”
ये तीन दिनों का इंतज़ार कितना मुश्किल था छवि के लिए ना जाने कितनी ही बार उसे लगा कि सच में उसने रजत को खो दिया, पर अब जैसे एक पल में सब कुछ वापस पहले जैसा हो गया उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जो उसने पढ़ा वो सब रजत ने लिखा था, अब उसे रजत पर बहुत प्यार आ रहा था वो उसी पल उड़ के अपने रजत के पास पहुँच जाना चाहती थी पर रजत ने तो कल आने को कहा था और अभी रात के 9 बज गए थे और इस वक़्त 5 km जाना भी ठीक नहीं था, पर जब दिल कोई बात ठान ले तो उसे मानना या रोकना आसान कहां होता है छवि भी अपने दिल के आगे हार गई और सबसे छुप कर अपने होस्टल से किसी तरह बाहर निकली ।
छवि अभी मेन गेट से 10-15 कदम ही आगे बड़ी होगी के पीछे से किसी ने उसे गुस्से में आवाज़ दी" ये कोई वक़्त है बहार जाने का?" छवि के कदम वही जम गए उसकी हिम्मत ही नहीं हुई पीछे पलट के देखने की जैसे तैसे हिम्मत बटोर के उसने पीछे देखा।
रजत था छवि हैरानी से उसे देख रही थी, रजत के चेहरे पर शरारती मुस्कान बिखरी थी वो बोला "मुझे पता था तुमसे रहा नहीं जायेगा और तुम अभी ही आओगी, इसलिए मैं ही आ गया" ये सुनते ही छवि के चेहरे पर प्यार भरी मुस्कान बिखर गई और वो रजत से जाकर लिपट गई।
इतनी ही थी ये कहानी…………….
----Leena Goswami
Tuesday, 17 September 2013
इंतज़ार के पल
मैं नागपाल रेस्ट्रोरेन्ट में छवि का इन्तजार अपने दुसरे कॉफी के कप के साथ कर रहा था, आज पहली बार छवि को देर हुई थी वरना इससे पहले हमेशा मैं ही उसे इन्तजार करवाता था। पर आज मुझे उसका इन्तजार मीठा लग रहा था, आखिर पन्द्रह दिनों से हमारे बीच चल रही ख़ामोशी और नोंक झोंक आज खत्म जो होने वाली थी। मुझे पहले ही पता था कि छवि ने मिलने बुलाया है तो जरुर सुलह करने के लिए ही बुलाया होगा।
हाँ पर हर बार की तरह इस बार भी गलती मेरी ही थी मैंने ही गुस्से में कुछ ऐसा कह दिया था जो मेरे और छवि के पांच साल के रिश्ते को तोड़ने के लिए काफी था, न जाने क्यूँ हर बार मुझसे ऐसी ही बेवकूफी हो जाती थी, गलती भी मेरी ही होती और लड़ता भी मैं ही था, फिर कुछ ऐसा कह देता जिससे छवि का दिल दुखा देता। लड़ना, दिल दुखाना ये सब मुझे भी पसंद नहीं था आखिर छवि से बहुत प्यार करता था मैं फिर भी जाने मुझे क्या हो जाता कि बार बार उसका दिल दुखा देता और छवि मुझ गधे से फिर भी उतना ही प्यार करती ।
हमारे बीच आज तक जितने भी झगडे हुए हर बार छवि ने ही अपनी समझदारी से सब कुछ सुलझाया, मेरी गलती का अहसास भी मुझे हमेशा वो ही दिलाती और माफ़ भी कर देती। आज उसके इन्तेजार के इन पलो में मुझे खुदके अंदर झाँकने का मोका मिल रहा था और ये अहसास भी हो रहा था कि छवि ने कितना कुछ किया है हमारे रिश्ते के लिए उसी ने ही हर डोर थामे रखी थी वरना बहुत पहले ही सब कुछ बिखर गया होता ।
अहसास होने के बाद भी अगर मैं बस अपनी गलतियों पर अफ़सोस करके रह जाता तो शायद मुझसे बड़ा बेवकूफ कोई और नहीं होता इसलिए मैंने अब अपनी गलतियों को सुधारने की ठान ली।
रेस्टोरेंट के बाहर ही एक फ्लावर शॉप थी मैंने वहां से कुछ ओर्चिद्स और रोज लिए और उनका एक खुबसूरत बुके बनवाया । मुझे पता था ये कुछ काम तो जरुर करेंगे । छवि अब तक नहीं आई थी और अब ये इन्तेजार के पल भारी होते जा रहे थे, मैं जल्दी से छवि के सामने अपने घुटनों पे बैठ कर माफ़ी मांगना चाहता था, उससे वादा करना चाहता था फिर मैं कभी उससे दूर जाने की बात नहीं करूँगा । मैं अब उसे खुश रखना चाहता था, जितनी भी गलतियाँ मैंने की थी उससे दुगना प्यार देना चाहता था ।
रेस्ट्रोरेन्ट का दरवाजा खुला और छवि अंदर आई, जैसे जैसे वो एक एक कदम मेरी ओर बढ़ रही थी मेरी धड़कने भी बढती जा रही थी । आज पहली बार मैं कुछ सही करने जा रहा था और इसलिए ही थोडा डर रहा था कहीं फिर कुछ गलती न कर दूँ । छवि पास आई तो मैंने देखा कि उसकी आँखें लाल थी जैसे रात भर सोई न हो, मुझे खुदपर और गुस्सा आया पर मैंने प्यार से उससे कहा "बैठो छवि मुझसे तुमसे कुछ कहना है"
छवि की आँखों में अचानक नमी आ गई और उसने कहा "प्लीज रजत पहले मैंने तुम्हे जो कहने के लिए बुलाया है वो सुन लो… मैं तुमसे आज भी उतना ही प्यार करती हूँ जितना हमेशा से करती आई हूँ तुम गलत नहीं हो शायद बुरे भी नहीं हो और शायद मैं भी इतनी बुरी नहीं हूँ फिर भी हमारे पांच सालो के साथ ने हमे सिर्फ बुरी और कडवी यादें ही दी है और मैं चाहे लाख कोशिश कर लूँ पर इसमें मिठास नहीं घोल सकती और अब मैं इस कडवाहट से भी उकता गई हूँ मैंने बहुत सोचा और फिर समझ आया के हम दोनों सही है पर एक साथ सही नहीं है तुम अच्छे हो पर मेरे लिए नहीं बने और मैं तुम्हारे लिए नहीं बनी, इसलिए हम दोनों का अलग हो जाना ही सब कुछ ठीक कर सकता है, मुझे तुमसे अब कोई शिकायत नहीं और उम्मीद करती हूँ तुम भी मेरे अचानक लिए इस फैसले से कोई शिकायत नहीं करोगे" मैं एक टक छवि को देख रहा था और छवि फिर धीरे धीरे चलकर रेस्टोरेंट के गेट के बाहर चली गई। क्यों ऐसा ही होना था? जब मैं सब कुछ ठीक करना चाहता था तो सब कुछ मेरे हाथ से निकल गया। पर अब अफ़सोस करके मैं बची कुची उम्मीद भी नहीं तोडना चाहता था इसलिए मैंने ठान लिया कि मैं छवि को अपनी जिन्दगी में वापस लाकर ही रहूँगा, अपनी हर गलती को सुधारूँगा, और एक दिन उसे ये अहसास दिलाकर ही रहूँगा कि वो मेरे लिए कितनी सही है…।
----Leena Goswami
Sunday, 15 September 2013
मेरी नन्ही परी
वो टिमटिमाती आँखें
जैसे सच्चाई का अक्स लिए,
वो निश्छल मुस्कान,
जैसे जन्नत की खूबसूरती खुद में समेटे,
वो मासूम चेहरा
जैसे निस्वार्थ, खुदा की नेमत बिखेरता,
बिलकुल ऐसा ही अनोखा रूप था
जब मेरी नन्ही परी इस दुनिया में आई थी …….
Wednesday, 11 September 2013
मेरी डायरी के वो कुछ पन्ने
मेरी डायरी के वो कुछ पन्ने
जो तुम्हे समर्पित थे,
आज फिर जिन्दा हो गए,
यूँ तो मर चुके थे बहुत पहले ही,
डायरी के वो चंद पन्ने,
तुम कब के फाड़ चुके थे मेरी जिन्दगी से,
बस डायरी में छोड़ गए कुछ
चुबते टुकड़े अपनी यादों के,
वो टुकड़े तुम्हारी यादों के
जो कभी नाजुक अहसास थे हमारे प्यार के,
अब खंजर बन रोज गढ़ते है सीने में,
और हर रोज़ कुछ जख्म कुरेद देते है
जो अब तक पड़े नासूर थे
ये लम्हे अब सोंप रही हूँ तुम्हे ही,
भेज रही हूँ ये पन्ने खुरदरे तोहफे में,
जानती हूँ टुकड़े कर दोगे इनके भी मेरे दिल की तरह ही,
पर पढ लोगे शायद, इन्हें फाड़ने से पहले,
तब तुम जानोगे क्या था वो तुमने खो दिया आसानी से जो,
और अब मैं भी सुकून चुरा लुंगी, फाड़ के वो पन्ने
जो कभी तुम्हे समर्पित थे।
जो तुम्हे समर्पित थे,
आज फिर जिन्दा हो गए,
यूँ तो मर चुके थे बहुत पहले ही,
डायरी के वो चंद पन्ने,
तुम कब के फाड़ चुके थे मेरी जिन्दगी से,
बस डायरी में छोड़ गए कुछ
चुबते टुकड़े अपनी यादों के,
वो टुकड़े तुम्हारी यादों के
जो कभी नाजुक अहसास थे हमारे प्यार के,
अब खंजर बन रोज गढ़ते है सीने में,
और हर रोज़ कुछ जख्म कुरेद देते है
जो अब तक पड़े नासूर थे
ये लम्हे अब सोंप रही हूँ तुम्हे ही,
भेज रही हूँ ये पन्ने खुरदरे तोहफे में,
जानती हूँ टुकड़े कर दोगे इनके भी मेरे दिल की तरह ही,
पर पढ लोगे शायद, इन्हें फाड़ने से पहले,
तब तुम जानोगे क्या था वो तुमने खो दिया आसानी से जो,
और अब मैं भी सुकून चुरा लुंगी, फाड़ के वो पन्ने
जो कभी तुम्हे समर्पित थे।
Friday, 6 September 2013
कल्पना
चाहे थी वो एक कल्पना,पर बड़ी सुहानी थी वो कल्पना,
ना दुःख का था कोई साया बस खुशियों की शजर थी वो कल्पना,
हर तरफ सुख की खुशबू थी, बस फूलों सी महकती थी वो कल्पना,
हर जख्म से दूर हर दर्द से परे बस एक मलहम थी वो कल्पना,
हर मतलब से दूर हर बुराई से परे, बस एक अच्छाई थी वो कल्पना,
हर सुबह में ताजगी हर शाम में उम्मीद, हर रात सुकून भरी, कुछ ऐसी थी वो कल्पना।
चाहे सच्चाई से थी कोसों दूर पर मेरी ही परछाई थी वो कल्पना,
अब बस सोचती हूँ काश हकीकत भी कुछ वैसी ही होती,
जैसी थी वो कल्पना ……
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